Thursday, March 26, 2020

कोरोना

वाह रे कुदरत क्या नजारा दिखाया हैं,
इन्सानों को अब तूने सच में इन्सान बनाया है,
आजाद हुए आज परीन्दे ,
कैद में इन्सान आया है,
वाह रे कुदरत क्या नजारा दिखाया हैं।
शौख पूरे किये इन्सानों ने ,
मार मार के जानवरो को खाया है,
आज जानवरो ने इन्हे मौत का रुख दिखाया है,
आज इन्सान खुद ही खुद के पिन्जरे में आया है,
वाह रे कुदरत क्या नजारा दिखाया हैं ।
बहुत रूलाया इन्सानों ने बेजुवानों को,
अब इनके रोने का दिन आया है,
कोरोना का रूप लेकर ,
इन्हीं का करमा इनके सामने आया है,
वाह रे कुदरत क्या नजारा दिखाया है।।


(चाँदनी पाठक)

Sunday, January 5, 2020

अनसुलझा सा लड़का

इक लड़का है
अनसुलझा सा ,दिवाना सा,
उसकी बातें जब जब याद आती है,
होठ़ों पे हँसी
आँखों में नमी
एक साथ आती है।
उसका गुस्सा
गुस्से में छिपा प्यार
मत पूछो यार
कितना सताती है।
उसके साथ हँसना भी अच्छा लगता है  रोना भी
थोड़ा सा पागल है वो
थोड़ा सा नादान भी
बिन बोले मेरी सारी बातें समझ जाता है
कहता है मुझे वो
खुद से ज्यादा चाहता है
बोलती  मैं हूँ
वो बस सुनता जाता है
कुछ कहे बिना ही
आँखों से हजार बाते कह जाता है
लड़ता  है मुझसे वो
फिर मनाता भी है
हर पल में मेरे वो
खुशियाँ भरना चाहता है
मम्मी से अपनी कहता है
बहू है ये तुम्हारी
भाई से कहता भाभी है तेरी प्यारी
मुझसे कहता है
शादी होगी जल्दी हमारी
जब कभी किसी बात से
दिल मेरा घबराता है
बाहों में भर मुझे
जन्नत की सैर कराता है।
इक लड़का है
अनसुलझा सा , दिवाना सा
जो हर पल मेरी साँसो में रहता है।।

$$chandani pathak$$

Wednesday, May 15, 2019

भ्रूण हत्या

विधा : कहानी 
शीर्षक : भ्रूण हत्या 
दिनांक : 10/05/2019

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कहते हैं कि हम सबकी जिंदगी में कोई न कोई ऐसा शख्स जरुर होता है जिससे हम बिना थके घण्टों बातें कर सकते हैं। और बिना सोचे समझे दुनिया भर की ऊल-जुलूल बातें कर सकते हैं। और ज़्यादातर ये शख्स कोई और नहीं बल्कि हमारा बेस्ट फ्रेंड ही होता है। अब ईशा और मीत को ही ले लीजिए। दोनों सारा दिन व्हाट्‍सऐप पर उंगलियाँ चटकाते रहते थे। उफ्फ... कितनी बातें करते होंगे दोनों दिन भर में! और रात में भी सोते कहाँ थे ये दोनों? मीत जागकर पढ़ाई करता था और ईशा उसे जगाए रखती थी। फिर धीरे-धीरे यूँ हुआ कि पढ़ाई हुई एक तरफ़ और सारी-सारी रात ईशा और मीत चैटिंग करने लगे। ईशा को राइटिंग का शौक था और मीत को रीडिंग का। सो, कभी ईशा अपनी शायरियाँ और कविताएँ भेजकर उसे पढ़ाती तो कभी मीत किसी राइटर की शायरियाँ और ग़ज़लें ईशा को पढ़ाकर उसका हुनर तराशता। यूँ ही करते-करते कब सुबह के पाँच बज जाते, पता ही नहीं चलता था। और फिर पाँच बजे दोनों एक-दूसरे को 'गुड नाइट' बोलकर सो जाते। जी हाँ, ये होता था इनका गुड नाइट का समय। फिर डेढ़-दो घण्टे सोने के बाद जब ये उठते तो फिर से एक-दूसरे से चैटिंग में लग जाते। और इतनी बातें करते भी क्यों न दोनों? आख़िर नौ साल पुराने दोस्त जो थे। जब इनकी दोस्ती ने दसवें साल में कदम रखा तो नज़दीकियाँ और बढ़ गयीं। बातों और शायरियों ने और ज़ोर पकड़ लिया। इसी दौरान ईशा ने नोटिस किया मीत के बदलते शायराना अंदाज़ को। कभी-कभी तो उसे लगता मानों मीत की ज़िंदगी में किसी खास शख्स ने कदम रख दिया हो। मगर फिर सोचती 'न.. मीत उस टाइप का लड़का नहीं है। उसे कभी किसी से प्यार हो ही नहीं सकता।' मग़र मियाँ ये इश्क़ है। ये किसी को कब, कहाँ, किससे और कैसे हो जाए, कोई भरोसा थोड़े ही है। आखिर एक शाम मीत की एक शायरी पर ईशा ने पूछ ही लिया, "अबे गधे! क्या हुआ है तुझे? इश्क़ हो गया है क्या किसी से?" मीत ने आदतन टॉपिक चेंज कर दिया। फिर कुछ देर बाद फिर एक शायरी पर ईशा का दिमाग घूमा। और इस बार उसने डाइरेक्टली पूछा, "ओए बाबू मोशाय! कहीं तुझे मुझसे प्यार तो नहीं हो गया है?" मीत ने फिर से बात टालने की कोशिश की। मगर इस बार वो नाकाम रहा। ईशा को जवाब चाहिए था। बहुत पूछने पर मीत ने बस एक ही बात कही, "May be or may not be." ईशा असमंजस में पड़ गयी। बहुत सोचा, बहुत विचार किया। और फ़ाइनली एक ही नतीजा पाया-'नो, मीत ऐसा बिल्कुल नहीं है।' ख़ैर, दोनों अब भी अपनी दोस्ती को जी रहे थे। धीरे-धीरे गुज़रते वक़्त के साथ ईशा की ज़िंदगी में एक ऐसा शख्स आ गया, जो उसे बेइन्तेहाँ मोहब्बत करता था। ईशा ने भी उसके साथ ज़िन्दगी बिताने फैसला कर लिया। जब मीत को पता चला कि ईशा की ज़िंदगी में कोई नया शख्स आ गया है, तो उसे डर लगने लगा कि कहीं ईशा उससे दूर न हो जाए। तब उसे एहसास हुआ कि वाक़ई ईशा उसके लिए क्या है? आख़िर उसने वैलंटाइन वीक में ईशा को प्रपोज किया। मग़र... ईशा पहले ही किसी और का हाथ थाम चुकी थी। मीत दुःखी था इस बात से। उसने धीरे-धीरे ईशा से दूरी बनानी शुरू कर दी। ईशा समझ चुकी थी मीत का दर्द। और अब उसे शिकायत थी। शिकायत थी मीत से कि क्यों उसके पूछने पर भी मीत ने सच न कहा? क्यों उसने अपनी ही दोस्त से इतनी बड़ी बात छुपाई? और इससे भी बड़ी शिकायत थी उसे खुद से कि क्यों उसने खुद भी मीत को अपने नए रिश्ते के बारे में न बताया? क्यों उसने मीत की बातों को गहराई से नहीं सोचा? क्यों उसने उस 'May be or may not be' को ठीक से न समझा? क्यों उस 'May be' को उसने तवज्जो न दी? क्यों वो 'May not be' ही उसके दिमाग में घूमता रह गया? क्यों? आख़िर क्यों वो अपने बेस्ट फ्रेंड, अपने जिगरे की बातों को बिन बोले न समझ पायी?
डर गया था मीत अपनी सबसे प्यारी दोस्त को खोने से, तभी तो वक़्त रहते नहीं कह पाया अपने दिल की बात। अब बस अफसोस ही कर सकता है वो अपनी उस खामोशी पर।
उन दोनों ही दोस्तों की थोड़ी सी नादानी ने एक बेहद ही खूबसूरत रिश्ते को पैदा होने से पहले ही मार दिया था। वो दोनों ही कसूरवार थे उन हसरतों के, उन ख़्वाबों के और उस मासूम से रिश्ते के जिसकी उन्होंने की थी 'भ्रूण हत्या'। और अब इस भ्रूण हत्या की सज़ा उन दोनों को ही ताउम्र भुगतनी थी।

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~*©तरुणा चौरसिया*

Tuesday, May 7, 2019

प्रीतम

प्रीतम 

मैं हूँ कोई बेल-री,
प्रीतम विटप समान।
जो लिपटूँ उनसे कभी,
तो अस्तित्व कमाऊँ।

मैं बरखा की बिन्दु-री,
प्रीतम सीप समान।
जो उनकी गोदी गिरूँ,
मैं मोती बन जाऊँ।

मैं हूँ प्यासी चातक-री,
प्रीतम स्वाति-नीर।
अधरों से स्पर्श करूँ,
तृष्णा सभी मिटाऊँ।

मैं हूँ ब्याहता नारी-री,
प्रीतम चन्दा-चौथ।
जो उनका दर्शन मिले,
करवा-चौथ मनाऊँ।

~©तरुणा चौरसिया

Monday, March 25, 2019

"मीनार"

पिछले कुछ दिनों से जब सुबह नींद खुलती है
तो काफी उलझन रहती है दिल में,
फिर जब थोड़ा आंख मलकर देखता हूँ,
तो सामने दिखती है एक बड़ी सी अंजान इमारत।

वो मेरे सामने इस तरह बाहें फैलाए खड़ी रहती है,
मानो कोई प्राचीन खूबसूरत सी मीनार हो।

बस ये जानने के लिए कि उतनी ऊंचाई से कैसा लगता है,
मैं उस मीनार पर चढ़ जाता हूँ।
उस ऊँची मीनार की चोटी पर अनगिनत बादल तैरते दिखाई देते हैं।
न जाने कितने ही रंग बिरंगे पक्षी उड़ते दिखाई देते हैं।
खिले दिखते हैं असंख्य मनमोहक फूल और उन पर मंडराती सैकड़ों रंगीन तितलियाँ और भँवरे।

उस ऊंचाई पर मुझे अलग ही एहसास होता है।
मेरी सारी उलझनें दूर हो जाती हैं और एक अलग ही सुकूं मिलता है।
हल्की हल्की सी बहती हवा जब भी मुझे छू के गुज़रती है,
लगता है मानों मेरे सारे ग़मों को साथ उड़ाकर कहीं दूर फेंक आती है।

मैं उस मीनार की छत पर बैठ दूर खुद को हवा में उड़ते देखता हूँ,
लगता है जैसे अब कोई भी तकलीफ मुझे छू न पाएगी।

मग़र फ़िर याद आती है जब अपने परिवार और माँ की,
तो उनकी खुशी के लिए मैं नीचे उतर आता हूँ।
लेकिन जब नीचे उतरता हूँ उस मीनार से मैं,
तो फिर से वही उलझनें, वही उदासी मुझे घेर लेती है।

कभी-कभी सोचता हूँ कि क्यों न उस मीनार पर ही रह जाऊं,
जहाँ न कोई उलझन है और न ही कोई तकलीफ।

पर कभी भी ऐसा कर नहीं पाता,
क्योंकि जैसे ही मैं उस मीनार पर चढ़ता हूँ,
कुछ ही देर में कोई न कोई मुझे नीचे खींच लेता है।

मैं उनसे पूछा करता हूँ कि आख़िर क्यों मैं उस मीनार पर रह नहीं सकता?
और हर बार मुझे एक ही जवाब मिलता है
कि इस मीनार से नीचे और दूर रहने की वजह ढूँढो,
हर बार इस पर चढ़ने की नहीं।

मैं उनसे पूछता हूँ - क्यों?
जबकि मुझे तो उस मीनार पर बहुत ही सुकून मिलता है।

वो मुझे बताते हैं कि इस मीनार ने कई लोगों की जानें ली है,
इस मीनार को लोग 'दर्द' कहते हैं।

फिर मैं ये सोचता हूँ कि जब इस दर्द की मीनार ने कई लोगों की जान ली है,
तो मुझे इस पर हमेशा सुकून क्यों मिलता है? क्यों यहां आकर मेरी हर उलझन दूर हो जाती है?

इन्हीं सवालों का जवाब मैंने कई जगह ढूँढा

और आखिर में मुझे जवाब एक किताब की इक पंक्ति में मिला। वो पंक्ति है-

"दर्द का हद से गुजरना ही है दवा हो जाना"

तो क्या सचमुच मेरा दर्द हद से गुजर गया है?
क्या अब मेरा खुशी से कोई वास्ता नहीं?


-ओमकार भास्कर 'दास'

Wednesday, March 13, 2019

फासले कम क्यों नहीं होते...

यहां लोगों के दिलों से फासले कम क्यों नहीं होते,
अदालत-ए-इश्क़ में बेगुनाहों पर रहम क्यों नहीं होते।


मेरी हर इक दुआ पर जो आमीन कहते थे कभी,
अब उन लोगों की दुआओं में दम क्यों नहीं होते।


जो भी आता है इक नया जख्म देकर जाता है,
सोचता हूँ, ये जख्म ही मरहम क्यों नहीं होते।


गर पूरी दुनिया में है पनपा कीड़ा आतंकवाद का,
तो हिंदुस्तानियों के हाथों में ही बम क्यों नहीं होते।


शहीदों की लाश पर भी सियासत खेलने वालों,
तुम्हारे घर में भी आये-दिन मातम क्यों नहीं होते।


बाइबिल, क़ुरआन और गीता याद न रही किसी को, 
यीशू अल्लाह और कृष्ण के दोबारा जन्‍म क्यों नहीं होते।



-©ओमकार भास्कर 'दास'

Sunday, February 3, 2019

कितने प्यारे फूल खिले है....

कितने प्यारे फूल खिले है,
अंजाम अपना भूल, खिले हैं।

हैरान मेरी कामयाबी पर,
रकीबों के भी होठ सिले है।

अब न बिछड़ेगे हम कभी,
उलझनों से ये दिल मिले है।

नजरों में है हया- ए -मोहब्बत,
शायद यहाँ रुह से रुह मिले है।

अपनों ने दिया धोखा जब-जब,
कुछ पराये हमराही साथ चले है।

नहीं शौक कि कोई शायर कहे, 
हम तो मियाँ बस दिलजले है।

अल्लाह की इनायत है मुझ पर,
बाजार-ए-नफरत में नहीं घुले है।


-©ओमकार भास्कर 'दास'