पिछले कुछ दिनों से जब सुबह नींद खुलती है
तो काफी उलझन रहती है दिल में,
फिर जब थोड़ा आंख मलकर देखता हूँ,
तो सामने दिखती है एक बड़ी सी अंजान इमारत।
वो मेरे सामने इस तरह बाहें फैलाए खड़ी रहती है,
मानो कोई प्राचीन खूबसूरत सी मीनार हो।
बस ये जानने के लिए कि उतनी ऊंचाई से कैसा लगता है,
मैं उस मीनार पर चढ़ जाता हूँ।
उस ऊँची मीनार की चोटी पर अनगिनत बादल तैरते दिखाई देते हैं।
न जाने कितने ही रंग बिरंगे पक्षी उड़ते दिखाई देते हैं।
खिले दिखते हैं असंख्य मनमोहक फूल और उन पर मंडराती सैकड़ों रंगीन तितलियाँ और भँवरे।
उस ऊंचाई पर मुझे अलग ही एहसास होता है।
मेरी सारी उलझनें दूर हो जाती हैं और एक अलग ही सुकूं मिलता है।
हल्की हल्की सी बहती हवा जब भी मुझे छू के गुज़रती है,
लगता है मानों मेरे सारे ग़मों को साथ उड़ाकर कहीं दूर फेंक आती है।
मैं उस मीनार की छत पर बैठ दूर खुद को हवा में उड़ते देखता हूँ,
लगता है जैसे अब कोई भी तकलीफ मुझे छू न पाएगी।
मग़र फ़िर याद आती है जब अपने परिवार और माँ की,
तो उनकी खुशी के लिए मैं नीचे उतर आता हूँ।
लेकिन जब नीचे उतरता हूँ उस मीनार से मैं,
तो फिर से वही उलझनें, वही उदासी मुझे घेर लेती है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि क्यों न उस मीनार पर ही रह जाऊं,
जहाँ न कोई उलझन है और न ही कोई तकलीफ।
पर कभी भी ऐसा कर नहीं पाता,
क्योंकि जैसे ही मैं उस मीनार पर चढ़ता हूँ,
कुछ ही देर में कोई न कोई मुझे नीचे खींच लेता है।
मैं उनसे पूछा करता हूँ कि आख़िर क्यों मैं उस मीनार पर रह नहीं सकता?
और हर बार मुझे एक ही जवाब मिलता है
कि इस मीनार से नीचे और दूर रहने की वजह ढूँढो,
हर बार इस पर चढ़ने की नहीं।
मैं उनसे पूछता हूँ - क्यों?
जबकि मुझे तो उस मीनार पर बहुत ही सुकून मिलता है।
वो मुझे बताते हैं कि इस मीनार ने कई लोगों की जानें ली है,
इस मीनार को लोग 'दर्द' कहते हैं।
फिर मैं ये सोचता हूँ कि जब इस दर्द की मीनार ने कई लोगों की जान ली है,
तो मुझे इस पर हमेशा सुकून क्यों मिलता है? क्यों यहां आकर मेरी हर उलझन दूर हो जाती है?
इन्हीं सवालों का जवाब मैंने कई जगह ढूँढा
और आखिर में मुझे जवाब एक किताब की इक पंक्ति में मिला। वो पंक्ति है-
"दर्द का हद से गुजरना ही है दवा हो जाना"
तो क्या सचमुच मेरा दर्द हद से गुजर गया है?
क्या अब मेरा खुशी से कोई वास्ता नहीं?
-ओमकार भास्कर 'दास'